दिव्य विचार: निष्ठा के बिना कोई कार्य पूरा नहीं होगा- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज
मुनि श्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि आस्था और निष्ठा में अन्तर क्या है? आस्था से धर्म की शुरुआत होती है। और निष्ठा से उसकी चरम परिणति। निष्ठा शब्द बहुत व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। सामान्य रूप से लोग आस्था और निष्ठा को एक गिनते हैं लेकिन आस्था और निष्ठा पर्यायवाची नहीं हैं। निष्ठा, आस्था से बहुत बढ़ा हुआ रूप है। निष्ठा में विश्वास तो है लेकिन विश्वास के साथ लगन भी है, उत्साह भी है, अनुराग भी है और दक्षता भी है। हम किसी भी कार्य को तब तक सम्पन्न नहीं कर पाते, जब तक उसके प्रति हमारी पूर्ण निष्ठा न हो। लोक में कई बार जब इस तरह की बातें आती हैं तो कहा जाता है कि मैं निष्ठापूर्वक इसका पालन करूँगा। बिना निष्ठा के आचरण हो ही नहीं सकता। आस्था होना और बात है, निष्ठा होना और बात है। अपने मन को पलटकर देखिए आस्था तो आपके अन्दर है ही, निष्ठा है या नहीं? गुरुदेव ने एक दिन बहुत गहरी बात कही थी- आस्था जब निष्ठा में परिवर्तित होती है तो जीवन की स्वतः प्रतिष्ठा बढ़ जाती है। क्या कहा, आस्था जब निष्ठा में परिवर्तित हो जाती है तो जीवन की स्वतः प्रतिष्ठा बढ़ जाती है, निष्ठा से प्रतिष्ठा जुड़ी है। आपकी निष्ठा जगी या नहीं जगी, यह आपको देखना है। निष्ठा आपकी कहाँ है? लगन, रुचि, विश्वास, भरोसा किस पर है? आज मैं आपसे चार निष्ठा की बात करूंगा, सबसे पहली निष्ठा है स्वयं के प्रति निष्ठा। तुम्हारी स्वयं के प्रति निष्ठा है या नहीं इसकी पड़ताल करो। स्व के प्रति निष्ठा; महाराज कैसी बात करते हो, अपने प्रति निष्ठा नहीं होगी तो किसके प्रति निष्ठा होगी? पड़ताल करोगे तो पाओगे कि नहीं महाराज ! आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। हमारे अन्दर स्व के प्रति निष्ठा नहीं है क्योंकि हमने स्वयं को पहचाना ही नहीं तो स्वयं के प्रति निष्ठा क्या होगी। आत्मनिष्ठा जागनी चाहिए, धर्म क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहते हो, अपने जीवन का उत्कर्ष करना चाहते हो तो आत्मनिष्ठ बनो।