दिव्य विचार: सच्ची श्रद्धा होने पर भय नहीं होता- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: सच्ची श्रद्धा होने पर भय नहीं होता- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि एक वनस्पति शास्त्री कुछ दुर्लभ वनस्पतियों के संग्रह के लिए एक गहरी घाटी के पास गया। घाटी में नीचे गहरी खाई थी, लगभग दो सौ फुट गहरी । उतरने का कोई रास्ता नहीं था। वहाँ वे दुर्लभ औषधियाँ थी, वनस्पतियाँ थीं। उसने अपने बेटे से कहा- बेटे ! मैं तेरी कमर में रस्सी बाँधता हूँ, आहिस्ता आहिस्ता यहाँ से छोडूंगा तो रस्सी के सहारे नीचे उतरना, जितनी आवश्यक हैं वे वनस्पतियाँ चुनना और झोली में भर लेना। रस्सी खोलकर उन्हें बाँध देना। मैं रस्सी से पूरी वनस्पतियाँ खींच लूँगा और तब दोबारा रस्सी डालूँगा तो कमर में बाँध लेना। मैं तुझे ऊपर खींच लूँगा। बेटे ने कहा- ठीक है पिताजी। पिता ने बेटे को उतार दिया। बेटे ने निश्चिन्त होकर वनस्पति का संचय करना शुरु कर दिया। पर्याप्त वनस्पति हुई तो उसने पहले उनको वापस भेजा। फिर रस्सी दुबारा डाली गई तो अपनी कमर में बाँधा। अब पिता काँपते हाथों से सम्हल-सम्हलकर अपने बेटे को ऊपर खींच रहा है। बेटा सहज भाव से ऊपर की ओर आ रहा है। बेटा जब ऊपर आया तो पिता ने उसे गले लगाया और कहा- बेटा ! मेरा तो हृदय काँप रहा था, पर तू इतना निश्चिन्त कैसे था? बेटे ने कहा- पिताजी ! मुझे किस बात का डर, जब रस्सी आपके हाथ में थी। जिस बेटे के जीवन की डोर अपने पिता के हाथ में हो उसे किस बात का डर? तुम्हारे अन्दर है ऐसी श्रद्धा? मेरे अपने जीवन की डोर सच्चे देव-शास्त्र-गुरु से जोड़ ली है, मुझे किस बात का डर? अगर सच्ची श्रद्धा होगी तो तुम्हारे मन में किसी प्रकार का भय नहीं होगा और श्रद्धा नहीं होगी तो कदम- कदम पर डर होगा। इसलिए स्वरूप की श्रद्धा कीजिए, तब हमारे कल्याण का रास्ता खुलेगा। सम्यग्दर्शन कोई छोटी-मोटी चीज नहीं है कि हवा में हो जाए। स्वरूप- श्रद्धानी बनेंगे तो हमारा आगे का मार्ग खुलेगा, जीवन का पथ प्रशस्त होगा। पहली बात है श्रद्धा। दूसरी बात है अश्रद्धा। दुनिया में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिन्हें आत्मा-अनात्मा, पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म, स्वर्ग-नरक इनसे कोई लेना-देना नहीं।