दिव्य विचार: विलास जीवन का अभिशाप है - मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: विलास जीवन का अभिशाप है - मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि आज की चार बातें- विलास, विनाश, विकास और विरागा विलास आज हर व्यक्ति को प्रिय है। संत कहते हैं तुम्हें विलास प्रिय जितना विलास करना है करो। है, विलासी बनो, मैं आपसे कहता महाराज ! क्या हुआ? आज विलास करने की बात कर रहे हो, विलास तो जीवन का अभिशाप है। मैं फिर दोहरा रहा हूँ, होश में बोल रहा हूँ- तुम्हें जितना विलास करना है करो, जी भरकर करो पर किसका विलास करो? चैतन्य का विलास करो। विलास के दो रूप हैं- एक चैतन्य-विलास, एक भोग-विलास। चैतन्य-विलास का मतलब अपनी आत्मा में रमना, अपनी आत्मा से बंधना, अपनी आत्मा में संतुष्ट होना और कामेच्छा को समाप्त कर डालना। जिसके अन्दर समस्त कामनाएँ अंतर्लीन हो जाएँ, जिसके भीतर सारी वासनाएँ विलीन हो जाएँ और जिसके अंदर सारी इच्छाएँ अंतर्धान हो जाएँ उसका नाम है चैतन्य-विलास । विलास का मतलब होता है आनंद, रस, तृप्ति, प्रसन्नता। तुम्हारे भीतर आनंद हो। धर्म आनन्द को छुड़ाने की बात नहीं करता; धर्म और अध्यात्म मनुष्य के जीवन में सच्चा आनन्द दिलाने की बात करते हैं। विलास चाहिए, कैसा विलास? अंदर का विलास, अंदर की तृप्ति जिसमें किसी साधन की जरूरत नहीं। चैतन्य-विलास जो स्वाश्रित है और भोग- विलास जो पराश्रित है। चैतन्य के विलास के लिए किसी दूसरे साधन और व्यक्ति की आवश्यकता नहीं और भोग-विलास सदैव दूसरों के माध्यम से होता है, उसमें सामने किसी की उपस्थिति चाहिए, चाहे वस्तु हो या व्यक्ति। चैतन्य-विलास में कोई सामने नहीं चाहिए बल्कि जब तक कोई सामने है तब तक चैतन्य का विलास ही नहीं है. स्वाश्रित है। चैतन्य के विलास में परम तृप्ति की अनुभूति और भोग के विलास में सदैव आतुरता और अतृप्ति का अनुभव।