दिव्य विचार: इच्छाओं के पीछे मत भागो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: इच्छाओं के पीछे मत भागो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि दुःख का कारण किसका? जिसके हृदय में जितनी चाह, वह उतना दुःखी । एक व्यक्ति को मनोनुकूल सामग्री मिल गई, फिर भी वह अन्य विषयों की प्राप्ति केलिए बेचैन है। और एक व्यक्ति जिसके मन में कोई इच्छा ही नहीं है, सुखी कौन है ? इच्छातीत होने में सुख है या इच्छा की पूर्ति करने में? बोलो, तुमने कौनसा मार्ग चुना? इच्छातीत होने का या इच्छापूर्ति करने का? बोलो ! अब तक जिन्दगी की कितनी इच्छाएँ पूरी हो गई हैं? अनुभव है तो फिर इस लाइन में क्यों लगे हो, यह भ्रम तोड़ो। मैं अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए पागल होऊँगा, पर इच्छा अपूर्ण रहेगी, यही तुम्हारे जीवन का आज तक का अनुभव है या नहीं? बोलो ! जीवन में अब तक तुम्हारे मन में बहुत सारी इच्छाएँ हुई, कितने परसेण्ट पूरी हुई हैं? क्या हुआ? एक भी नहीं? महाराज ! एक इच्छा पूरी हुई कि आप नसीराबाद आओ और आ गए, इच्छा पूरी हो गई। इच्छा थोड़े ही पूरी होती है, लेकिन जितनी पूरी होती है उससे कई गुना बढ़ जाती है। जो ज्ञानी जीव होता है वह समझता है कि नहीं, इच्छा की पूर्ति इच्छातृप्ति का साधन नहीं है, अपितु इच्छाओं का नियन्त्रण ही इच्छातृप्ति का साधन है। कहते हैं रावण जब मरणासन्न था तो उससे किसी ने पूछा- आपने अपने जीवन में बड़े- बड़े काम किए हैं, अब इस मरणासन्न घड़ी में आपसे पूछना चाहता हूँ कि क्या आपकी कोई इच्छा शेष रह गई ? रावण ने कहा- ऐसे तो मेरे मन में अनेक अधूरी इच्छाएँ हैं, पर मेरे मन में तीन ऐसी इच्छाएँ हैं जिन्हें पूरी करने में मैंने पूरा जीवन लगा दिया। वे अधूरी इच्छाएँ मेरे मन की कसक हैं, मैं उन्हें पूरी नहीं कर सका। सब आश्चर्यचकित हो गए। ऐसी कौन सी इच्छाएँ हैं? बताइए ! उसने कहा- मैंने सोने की लंका बनाई। मेरी इच्छा थी कि सोना सुनहरा है, सुन्दर है, पर काश उसमे सुगन्ध होती। मैं सोने को सुगन्धित नहीं बना पाया। मेरी दूसरी इच्छा थी कि सागर में अथाह जल है, पर वह खारा है। मैंने सोचा था कि काश सागर का जल मीठा होता तो जनता के काम आता, लेकिन मैं सागर के जल को मीठा नहीं कर सका ।