दिव्य विचार: भोग-विलास के चक्कर में न पड़ें - मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज
मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि जब तक तुम्हारी देह पर दृष्टि रहेगी तब तक चैतन्य का विलास कर ही नहीं सकोगे। सच्चा आनंद नहीं होता। बच्चा रोता है तो माँ कभी-कभी उसे निप्पल पकड़ा देती है, बच्चा मुँह में निप्पल लेकर मग्न हो जाता है, मन ही मन बड़ा खुश होता है कि चलो मुझे निप्पल मिल गया। मैं पूछता हूँ निप्पल दबाने से बच्चों को उस निप्पल में कोई रस मिलता है क्या? क्या है निप्पल में? रस है या रस का भ्रम है? रस का भ्रम है, वह निप्पल उसे रस का भ्रम दे रही है, रस तो उसके मुँह से निकल रहा है लेकिन वह सोच रहा है कि ये सारा रस निप्पल दे रही है। निप्पल को चूसते चूसते वह थक जाएगा पर उसे तृप्ति नहीं मिल सकती, उसे पुष्टि नहीं मिल सकती अगर उसी निप्पल की जगह माँ का दूध थोड़ी देर पी ले तो पुष्ट हो जाता है। चैतन्य-विलास माँ के दूध की तरह है और भोग-विलास निप्पल की तरह है। तुम क्या पसंद करते हो भोग-विलास या चैतन्य- विलास? अभी तक तुमने केवल भोग-विलास का ही रसास्वादन किया है, चैतन्य-विलास का तुम्हें अनुभव ही नहीं हुआ। उस चैतन्य को पहचानो, जिस पल उसे पहचान लोगे तुम्हारी वृत्ति और प्रवृत्ति परिवर्तित हो जाएगी, तुम्हारे सोचने का ढंग बदल जाएगा, तुम्हारे देखने का ढंग बदल जाएगा, तुम्हारा आचार बदलेगा, तुम्हारा विचार बदलेगा, फिर तुम्हें ज्यादा और उपदेश देने की जरूरत नहीं होगी। आचार्य कुंदकुंद कहते हैं- भोगना है तो अपनी चेतना को भोगो, अनुभव करना है तो अपनी चेतना का अनुभव करो। भोग-विलासिता के चक्कर में तो तुमने अनन्त जन्म गँवा दिए, अपने आप को नहीं पहचाना। सद्गुरु की कृपा से यदि तुम्हें अपनी आत्मा का ज्ञान हुआ है तो उसे पहचानने की कोशिश करो। अपने भीतर के इस चैतन्य में तुम रत रहो, इसी में संतुष्ट हो, इसी में तृप्त हो, इसी में तुम्हें परम सुख की प्राप्ति होगी। देह-दृष्टि से ऊपर उठो, चेतना की दृष्टि को पकड़ो अगर तुम्हारे भीतर वह चैतन्य-विलास प्रकट हो गया तो फिर तुम्हारे जीवन में किसी विलास की जरूरत नहीं है।