दिव्य विचार: यहां से जाओगे तो क्या लेकर जाओगे? - मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज
मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि अकिंचनत्व की अनुभूति वही कर सकता है जिसे अपने आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होता है। त्याग बहुत उच्च साधना है। लोग त्याग भी दो प्रकार से करते हैं एक में पर को त्यागते हैं पर परवस्तु को अपना मानकर त्यागते हैं। मैंने त्यागा, मैंने दान दिया, मैंने अपना इतना रुपया इस कार्य में लगाया - ये तुमने कहा। आकिञ्चन्य धर्म भीतर तक का ऑपरेशन करता है। वह कहता है अपने शब्दों को सम्हाल कर बात करो, तुमने 'अपना' क्यों लगाया? तुमने अपना लगाया; तेरा था क्या, लेकर क्या आया था, इस दुनिया में जब आया था तो क्या लेकर आया था, ये बैंक बैलेन्स क्या तू साथ में लेकर आया था, ये धन-दौलत क्या तू साथ में लेकर आया था, क्या लेकर आया था? बोलो। कुछ भी लेकर नहीं आए थे, यहाँ से जाओगे तो क्या लेकर जाओगे? न कुछ लेकर आए हो न कुछ लेकर जाओगे। फिर भी कहते हो मैंने अपना रुपया लगाया; तेरा है क्या? ये शरीर तेरा नहीं तो ये सम्पत्ति तेरी कैसे हो सकती है। गहराई में जाने की बात है। मेरा है क्या जो मैंने दिया? ये तो तेरा अज्ञान है, तेरा मिथ्या अहंकार है कि तू पराई वस्तु पर अपनी मालकियत थोप रहा है। कोई व्यक्ति दूसरों की सम्पत्ति पर अपनी मालकियत थोपे तो उसको आप क्या कहोगे? महाराज ! किसी कमजोर की सम्पत्ति पर मालकियत थोपेगा तो उसको हथिया लेगा, हड़प सकता है लेकिन यदि किसी बलवान आदमी की सम्पत्ति हो तो? मान लीजिए कोई व्यक्ति प्राइम मिनिस्टर ऑफ इण्डिया (भारत के प्रधानमन्त्री) की सम्पत्ति को अपनी सम्पत्ति मानकर उसका गर्व करे तो आप क्या कहोगे? इसको आगरा भेजना पड़ेगा और क्या कहेंगे। पास में तो आगरा ही है। यही कहोगे न कि ये पागल है, प्राइम मिनिस्टर (प्रधानमन्त्री) की सम्पत्ति को अपनी सम्पत्ति बना रहा है, इसकी सम्पत्ति है कहाँ? मान रहा है, है नहीं। ये इसका अज्ञान है, यही बोलोगे न कि उसको आगरा भेजना पड़ेगा तो भैया ! आप सबको भी आगरा भेजना पड़ेगा ।