दिव्य विचार: योग्यता को पहचानिए, योग्यता को उभारिए- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: योग्यता को पहचानिए, योग्यता को उभारिए- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि आध्यात्म की साधना अपने आपकी पहचान से शुरु होती है और उसकी उपलब्धि से पूर्ण होती है। अपनी योग्यता को पहचानिए। नम्बर वन- अपनी योग्यता को पहचानिए नम्बर दो- अपनी योग्यता उभारिए। योग्यता को पहचानने के बाद, योग्यता को उभारने का उद्यम। जब हम साधना क्षेत्र में आगे बढ़ते हैं और जब हमें यह कहा जाता है कि मैं एक शुद्ध ज्ञान-दर्शनमय चेतन आत्मा हूँ, आनन्द स्वरूप हूँ, चैतन्य स्वरूप हूँ, सुखस्वरूप हूँ, देहातीत हूँ, विकाररहित हूँ, मैं आनन्द का धाम हूँ तो जो मैं हूँ उसकी अभिव्यक्ति के लिए प्रयत्न करें। मेरे भीतर कितनी शक्ति है, पहले इसे जानो फिर उसकी अभिव्यक्ति का उद्यम करो। योग्यता को पहचानने के बाद योग्यता को उभारना, और उभरेगा कब ? पाषाण के भीतर भगवान है यह केवल एक शिल्पी जानता है। आम आदमी की आँखों में पाषाण तो केवल पाषाण के रूप में दिखाई पड़ता है लेकिन शिल्पी... शिल्पी जब उस पाषाण को देखता है तो उसे पाषाण नहीं उसके भीतर छिपे भगवान नजर आते हैं। अब भगवान को प्रकटाने के लिए वह उस पाषाण को धीरे-धीरे तराशना शुरु करता है। और ज्यों- ज्यों तराश होती है, आगे बढ़ती है, उस पाषाण के भीतर छिपे भगवान का आकार उभरना शुरु होता है। बस, स्वयं की योग्यता को तराशने का नाम ही, योग्यता को उभारना है। तराशो ! यही साधना है। हमारी साधना का मूल उद्देश्य हमारे ऊपर जो विषय विकार हैं, हमारे अन्दर जो दोष हैं, दुर्बलता है, दुर्गुण हैं इन्हें दूर करो, इन्हें हम ज्यों-ज्यों दूर करते जाएँगे, त्यों-त्यों हमारी योग्यता अपने आप उभरकर आगे आने लगेगी। जब हमारी योग्यता उभर जाएगी, एक बार योग्यता को उभारने के बाद उसे निखारना है। आप देखते हैं कोई शिल्पकार मूर्ति बनाता है तो प्रथम चरण में उसे तराश कर उसके अक्श को उभारता है। जब अक्श उभर जाए तो उसके बाद उस पर पॉलिश करके उसे निखारता है।