दिव्य विचार: श्रद्धा जाग गई तो बेड़ा पार- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज
मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि जो अपने हित को चाहता है। यह तो तय हो गया कि तुम्हारे भीतर अश्रद्धा तो नहीं है। जिनके भीतर अश्रद्धा है वे प्रगाढ़ मिथ्यात्व में लीन हैं, उनका संसार अभी लम्बा है। लेकिन अश्रद्धा को मैं उतनी बुरी नहीं मानता, क्योंकि अश्रद्धा से श्रद्धा जन्मती है। संसार के अधिकतर प्राणी अनादि मिथ्यादृष्टि होते हैं। आज हम जिन तीर्थङ्कर भगवन्तों की पूजा-अर्चना करते हैं, वे भी अनादि से सम्यग्दृष्टि नहीं थे, मिध्यादृष्टि थे। श्रद्धा थी, भवितव्य बना, निमित्त मिले, श्रद्धा जाग गई, बेड़ा पार हो गया। जिनके अन्दर अश्रद्धा है, मेरी दृष्टि में वे भी इतने बुरे नहीं हैं, क्योंकि उनके भीतर अगर श्रद्धा जगेगी तो पूरी सम्भावना है कि टर्निंग प्वाइण्ट आया और बदल गए। तीसरे नम्बर पर है अन्धश्रद्धा । यह बड़ी खतरनाक है। न श्रद्धा है, न अश्रद्धा है। अश्रद्धालु को कम से कम पहचान तो लेते हैं कि यह अधर्मी है, पर अन्धश्रद्धालु होता अधर्मी है, दिखता धर्मी है। वह खुद भी अपने आपको धर्मी मानने का भ्रम पालता है। कहते हैं कि भ्रम को तोड़ने के लिए श्रद्धा रखो, पर श्रद्धा में ही भ्रम है तो उसका क्या होगा? यह अन्धश्रद्धा क्या है? बोलो ! अन्धश्रद्धा किसको बोलेंगे? विवेकरहित श्रद्धा । हमने देव-शास्त्र- गुरु पर श्रद्धान किया। मेरी श्रद्धा देव-शास्त्र-गुरु के अलावा और किसी के प्रति नहीं है, लेकिन घर में किसी को पेट दर्द हुआ और एक श्रीफल लेकर पहुँच गए, किसी को जुकाम हुआ कि श्रीफल लेकर पहुँच गए, जीवन में कुछ भी प्रसंग बने, बस सारा आरोप भगवान पर लगा दिया। यह श्रद्धा है कि अन्धश्रद्धा है? बोलो ! जब काम बन गया तो अरे ! इस मन्दिर का तो गजब का अतिशय है और काम नहीं बना तो मेरी तो श्रद्धा ही टूट गई। अरे! पैदा ही कब हुई थी जो टूट गई? यह श्रद्धा नहीं, एक प्रकार का आन्तरिक अनुबन्ध है । महाराज ! दुःख की घड़ी में भगवान् के सामने विनती करना क्या अन्धश्रद्धा है? मैं यह नहीं कहता कि दुःख की घड़ी में भगवान् के सामने विनती करना अन्धश्रद्धा है, लेकिन सारे दुःखों का निवारक भगवान् को मानना अन्धश्रद्धा है।