दिव्य विचार: समभाव को बढ़ाने का प्रयास करें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि तीसरा क्रम समभाव का है। औरों के प्रति कभी ऐसा प्रति-भाव मत रखना और यदि तुम्हारे साथ कोई ऐसा प्रति-भाव रखे तो तुम उससे प्रभावित मत होना। उसके प्रभाव में मत आना, बनाकर रखना। सोचना चलो यह इसका स्वभाव है, यह इसका नेचर है, चलो इग्नोर करो, कोई बात नहीं उसने नहीं किया तो क्या किया, मैं अपने कर्तव्य का पालन करूँ। आज मेरा बेटा मेरी नहीं सुनता, आज मेरी बहू मेरी बात नहीं मानती, आज मेरा भाई मेरी कुछ नहीं सुनता, आज मेरे घर में मेरी नहीं चलती, कोई बात नहीं। जब नहीं चल रही तो चलाने की कोशिश क्यों कर रहे हो? समभाव रखो। मेरे कर्म का उदय है, मेरा पुण्य इतना क्षीण है कि आज मेरा प्रभाव कम पड़ रहा है, यदि मेरे पुण्य में जोर होता तो मुझे बोलने की बात ही बहुत दूर की है, मुझसे पूछे बिना लोग कुछ करते ही नहीं। आज कोई नहीं सुन रहा है तो कहीं न कहीं मेरे व्यक्तित्व की कमी है, जो मेरे पुण्य की क्षीणता से है। चलो, इसे मैं सहज भाव से स्वीकार करता हूँ, इसे मैं सहन करता हूँ, चुपचाप सहन करो। अपने अन्दर का समभाव बढ़ाओ तो फिर कुछ गड़बड़ होगा? होता क्या है, कहीं तुम्हारी उपेक्षा होती है, तिरस्कार होता है, अपमान होता है और तुम अपने आपको उपेक्षित या अपमानित महसूस करना शुरु कर लेते हो। या तो उससे लड़ पड़ते हो या भीतर ही भीतर घुटते रहते हो, यह दोनों भयानक दुर्बलता है। इन दोनों स्थितियों से मनुष्य को उबरना चाहिए। बचना भी ठीक नहीं, घुटना भी ठीक नहीं अपितु क्या करो, उसको घोटकर पी लो और हजम कर लो, जीवन धन्य हो जाएगा। समभाव को बढ़ाने का प्रयास कीजिए, अपनी क्षमता की अभिवृद्धि करने का प्रयास कीजिए। नहीं, मुझे अपनी क्षमता बढ़ानी है। लोक-जीवन में तो फिर भी आप अपनी क्षमता को बढ़ा लेते हैं।