दिव्य विचार: अपवित्रता का नाम ही पाप है- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: अपवित्रता का नाम ही पाप है- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि बस ! यही हमारी भूल है। हमने क्रिया को पुण्य माना है लेकिन पुण्य क्रिया नहीं, पुण्य भाव है। जब तक तुम क्रिया में पुण्य देखोगे तो अपने आप को क्रिया तक सीमित रखोगे। जिस दिन भावों के पुण्य को समझोगे उस दिन तुम्हारा जीवन कुछ का कुछ हो जाएगा। मैंने आपसे कहा- पुण्य क्रिया नहीं, पुण्य भाव है इसका तात्पर्य क्या है? पुण्य का मतलब होता है पवित्रता। क्या है पवित्रता? किसकी पवित्रता? भावों की, विचारों की पवित्रता। हृदय में अहोभाव की अभिवृद्धि ही पुण्य का उपार्जन है। अब दिख रहा है वह पुण्य? खोजो। तुम्हारे भावों और विचारों में जितनी पवित्रता है, समझ लो उतना पुण्य से साक्षात्कार हो रहा है, तुम अपने भीतर जितनी पवित्रता घटित कर रहे हो, समझ लेना उतना पुण्य कमा रहे हो। बोलो- अब दिखेगा कि नहीं दिखेगा पुण्य? एक पल को आँख बन्द करो और आँखें बन्द करके सोचो कि मैंने अपने जीवन को पवित्र बनाने का कर्म कितना किया या पवित्रता का कार्य अपने जीवन में कितना किया? जो-जो किया वह सब तुम्हारा पुण्य के खाते में जाएगा। जहाँ पवित्रता है, वहाँ पुण्य है और जहाँ पुण्य है, वहाँ पवित्रता है। अपवित्रता का नाम ही पाप है। बोलिए- पवित्रता है? यह आपको देखना है बाहर मैंने क्या किया वह उतना अर्थपूर्ण नहीं है, भीतर मैंने क्या पाया यही अर्थपूर्ण है। मैंने आपसे कहा- जैसे कमाया हुआ पैसा दिखता है, वैसे ही कमाया हुआ पुण्य भी देखने की कोशिश करो। तुम्हारा फाइनेंसियल ग्राफ गिरता है तो नींद उड़ जाती है, तुम्हारी विशुद्वि मन्द होती है तो तुम्हारे मन में कोई चिन्ता होती है? हृदय की विशुद्वि बिगड़ती है तो तुम्हारे मन में कोई चिन्ता होती है? बोलो... हमारे यहाँ शास्त्रो में, कर्मशास्त्र में पुण्य की परिभाषा करते हुए यह नहीं कहा कि पूजा करो, पाठ करो, जाप करो, तप करो, व्रत करो, उपवास करो, यह पुण्य है।