दिव्य विचार: सोचो पाप कर रहे हो या पुण्य - मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: सोचो पाप कर रहे हो या पुण्य - मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि आज चार बातें कहूँगा-पाप करना, पाप भोगना, पाप काटना और, पाप त्यागना । पहला सवाल पाप करने का। अपने भीतर झाँककर देखो तुम पाप करते हो या नहीं? चौबीस घण्टे में क्या ज्यादा होता है? पाप। पाप कमा रहे हो न? तो पापी कहूँ तो बुरा क्यों लगता है बोलो। ध्यान रखो जब तक अपने कृत्य को तुम ठीक तरीके से नहीं समझते और खुद के पाप को नहीं पहचानते, जीवन पवित्र नहीं हो सकता। मुश्किल यह है कि मनुष्य पाप को बुरा भले कहता है लेकिन पाप को ही गले लगाता है। मनुष्य का जितना रुझान पापात्मक प्रवृतियों में होता है, धर्म से उतना लगाव नहीं होता। मन से पूछो भगवान की पूजा करते समय की एकाग्रता और पिक्चर देखते समय की एकाग्रता, जितनी तन्मयता से तुम मूवी देखते हो उतनी तन्मयता से कभी भगवान की पूजा की? कभी एकाध सामयिक की? कभी स्वाध्याय किया? कभी प्रवचन सुना? पाप रुचि मनुष्य के अन्दर संस्कार से है और उन्हीं संस्कारों से प्रेरित होकर वह पापात्मक प्रवृत्तियों में ज्यादा रस लेता है। पाप करने का कोई मौका आए तो आदमी कुछ नहीं सोचता और पुण्य करने का मौका आए तो जरूर सौ बार सोचता है। आपको कोई अच्छे काम की प्रेरणा दी जाए तो आप दस बार विचार करोगे लेकिन बुरे काम के लिए? देखो ! कभी किसी की प्रशंसा करने की बात आपके सामने आए तो आप सोचकर बोलोगे इसकी प्रशंसा में कौन से शब्द कहूँ? लेकिन कभी किसी को गाली देना हो तो? बोलो ! सोचकर गालियाँ देते हो? सपने में भी कभी गाली देने की बारी आए तो बेधड़क निकलती हैं, इसका तात्पर्य समझते हैं? यह पाप के प्रति जमी हुई अभिरुचि की अभिव्यक्ति है। जब तक पाप के प्रति गाढ़ रुचि होगी तुम पाप करने से अपने आपको बचा नहीं सकते।