दिव्य विचार: धन की लालसा कहां तक जायज ? - मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज
मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि वासना मनुष्य के मन में एक उम्र के बाद प्रकट होती है और उम्र ढल जाने के बाद धीरे-धीरे खत्म हो जाती है लेकिन धन की लालसा, धन का जुड़ाव एक छोटे से बच्चे के पास भी होता है और कब्र में पाँव अटक जाने तक वह बना रहता है, आखिरी साँस तक बना रहता है। छोटा बच्चा कागज फाड़ने को तैयार हो जाएगा पर तुम्हारे नोट फाड़ने की उसकी मानसिकता नहीं होगी और मरते दम तक आदमी के हृदय में धन की लालसा बनी रहती है। सब लोग उसे ही जोड़ने की कोशिश में लगे हुए हैं, रात-दिन जोड़ना, जोड़ना, जोड़ना की प्रवृति लोगों की बनती है। सन्त कहते हैं- ठीक है, तुम जोड़ तो रहे हो, अन्त क्या है? जिसे तुम जोड़ रहे हो, उसका अन्त क्या है? जोड़ने के पीछे तुम्हें कितनी मशक्कत करना पड़ रही है। बोलो.... कितना अन्तर है? आप सब जोड़ने वाले हो और हम सब छोड़ने वाले हैं। आप सब जोड़कर नीचे बैठे हो, हमने सब छोड़ दिया, आपने मुझे ऊपर बिठाया है। अन्तर क्यों? जोड़ने वाला बड़ा या छोड़ने वाला बड़ा? तुम्हें बड़ा बनना है कि नहीं? महाराज! कसम खाए हैं, जहां है, वही रहेंगे। संत कहते है कि अपने जीवन का उत्थान करना चाहते हो तो केवल संग्रह की बात मत सोचो, अपने द्वारा जो कुछ भी संग्रह किया है उसमें औरों का अनुग्रह करो, उपकार करो, कुछ छोड़ो। जोड़ोगे तो धरा रह जायेगा, छोड़ोगे तो अमर बन जाओगे। आपने देखा नदियों का जल मीठा होता है और समुद्र का जल खारा, ऐसा क्यो? केवल इसलिए कि नदियां अपने पास कुछ नहीं रखती, उन्हें जो कुछ मिलता है सब बांट देती है और समुद्र, लाखों नदियां उसमें समाती है तो भी उसकी प्यास नहीं बुझती। वह केवल संग्रह करके रखता है।